Showing posts with label Amandeep Singh. Show all posts
Showing posts with label Amandeep Singh. Show all posts

Tuesday, 16 May 2017

माँ या मज़दूर









साथी बहुत हैं उसके,
बेज़ुबान हैं, अनजान हैं।
रसोई के सामानों से ही,
मेरी माँ की पहचान है।

बहाकर पसीना सारा दिन,
क्यों होती चकनाचूर है?
बस यही बात खटकती है,
वो माँ है या मज़दूर है।

भरकर मक्खन रोटियों में,
हर रोज़ परोसा करती है।
खुद खाकर सब्ज़ी पुरानी,
अपना गुज़ारा करती है।

सुनकर डाँट शिकायत सबकी,
छुप कर वो रो लेती है।
कभी कभी तो माँ मेरी,
भूखे पेट सो लेती है।

तबियत ख़राब होने पर भी,
काम उसे ही करना है।
खाकर दावा, पानी पीकर,
रसोई में फिर थकना है।

गूंथ रही आटा देखो,
आदत से मजबूर है।
बस यही बात खटकती है,
वो माँ है या मज़दूर है।

साफ़ कराने होते उसको,
पर्दे कितने गंदे हैं।
घर की कई बातों पे जो,
पर्दे ही तो ढकने हैं।

चिल्लाकर बच्चों पे उसका,
गला बैठ सा जाता है।
पूजा पाठ करती फिर भी,
रब से जो इक नाता है।

हर चाय में चीनी कितनी,
माँ को याद सब रहती है।
नमक दाल में कम न हो,
फ़िक्र लगी उसे रहती है।

कई सालों से गायब पड़ा,
उसके चेहरे का नूर है।
बस यही बात खटकती है,
वो माँ है या मज़दूर है।

नाश्ता ख़तम करते ही तो,
तैयारी में जुट जाती है।
दोपहर के खाने की जो,
फरमाइश उसे आ जाती है।

रस्सी पे जो टाँगे कपड़े,
वो भी तो उतारने हैं।
खुद भले भीगे बारिश में,
कपड़े मगर सुखाने हैं।

इकट्ठा करके तेल मसाला,
अचार आम का बनाना है।
त्योहारों में भी छुट्टी नहीं,
घर को जो सजाना है।

हमेशा कमरा तैयार रखती,
मेहमानों का ज़रूर है।
बस यही बात खटकती है,
वो माँ है या मज़दूर है।

बर्तन को घिस-घिस कर,
नाखून टूट गए हैं।
माँ की उँगलियों में अब तो,
गड्ढे भी पड़ गए हैं।

नाखूं जब टूटे हुए,
रंग चढ़ते नहीं हैं।
कच्ची दीवारों पे अक्सर,
रंग चढ़ते नहीं हैं।

उम्र भी बढ़ती जा रही,
पर माँ तो ठहर गयी है।
आज भी काम करती हुई,
वो घर पे सिमट गयी है।

आँखें मेरी छलक पड़ीं,
अरे, कैसा ये दस्तूर है?
बस यही बात खटकती है,
वो माँ है या मज़दूर है।



-अमनदीप सिंह